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Sukhnandan Bindra

Abstract Inspirational

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Sukhnandan Bindra

Abstract Inspirational

घड़ी सी हो गयी ज़िन्दगी

घड़ी सी हो गयी ज़िन्दगी

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मेरे घर की दीवार पर

सामने टंगी है घड़ी

निर्विकार भाव से टिक-टिक चलती जाती

मेरी धड़कन से कदमताल मिलाती

कोई संवेदना नहीं 

बस चल रही है मशीनी गति से ऐसे

ठीक उसी तरह ज़िन्दगी

चल रही है जैसे -कैसे


सुबह-सवेरे....

 टन-टन-टन-टन-टन पांच बजते ही

वो मुझे अपने होने का एहसास दिलाती है

मैं बंध जाती हूँ उसकी गति से

बार -बार देखती हूँ उसे ग़ौर से

कि मुझसे आगे न निकल जाए

समय की दौड़ में

हर काम ....

उसकी निगरानी में होता है

पल पल मैं समय को पढ़ती जाती हूँ

काम में मग्न रह कर उसे न भुलाती हूँ

 

ऑफिस जाने के वक़्त

वो मेरी कलाई पर उतर आती है

दफ़्तर तक साथ साथ जाती है

पैदल , रिक्शा,बस,मेट्रो

मेरे साथ- साथ चलती है घड़ी


दफ़्तर में फिर..

सामने की दीवार पर टंगी है इक घड़ी

भागती रहती है वो भी

और उसके संग मैं भी

याद दिलाती रहती है ..

वक़्त की पाबंदी,मीटिंग का समय

बिखरी फाइलों के ढेर बीच

खाने का समय


सांझ ढले...

कुछ सुस्त कुछ पस्त सी

ऑफिस बन्द होने का बताती है घड़ी

फ़िर से मेरी कलाई पर उतर आती है घड़ी

 

सुख की घड़ी

दुःख की घड़ी

खुशी की घड़ी

ग़म की घड़ी

पल दो पल आराम की घड़ी

आस की घड़ी

निराशा की घड़ी

घड़ी पहाड़ होना

घड़ी मिलना

घड़ी टलना

घड़ी से कैसा नाता है

बंधी रहती है हाथ पर

और वक़्त गुज़र जाता है


ख़याल आता है. .

कि ये घड़ी न होती तो शायद

ज़िन्दगी कुछ आसान होती

समय की पाबंदी से मुक्त मैं..

मर्ज़ी से कुछ पल जी पाती

उन्मुक्त मेरी उड़ान होती

 

दूसरे ही पल....

घड़ी सरगोशी कर जाती

वक़्त ज़िंदा है, टिक टिक मौजूद है

धड़कन ज़िंदा होने का सबूत है


मैं मुस्कुरा देती हूँ 

घड़ी के संग फ़िर से

नए दिन के सफ़र पर चल देती हूँ

न वक़्त थमता है,न ज़िन्दगी रुकती है

और ये घड़ी...मदमस्त सी चलती रहती है।


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