गैरों में अपनापन ढूंढते हैं
गैरों में अपनापन ढूंढते हैं
क्या जमाना आ गया है
हम अपनों को छोड़ गैरों में अपनापन ढूंढते हैं।
घर के अपने जाएं कहीं भी
हम सोशल मीडिया में अनजान में अपनापन ढूंढते हैं।
घर में हो कितनी भी परेशानी उससे ना हमारा कोई वास्ता,
लगते हैं वह सब हमको पराए क्योंकि हम अपनों में नहीं
दूसरों में सोशल मीडिया में अपनापन ढूंढते हैं।
घर के भले ही कितना ही अपनापन रखें,
उसमें हमेशा कमी ही नजर आएगी।
मगर सोशल मीडिया वाले दोस्तों में जिनको हम जानते भी नहीं,
उनकी जरा सी बातें भी हमको मीठी शहद चुपड़ी नजर आएंगी।
बनावट की दुनिया में हम बनावट ढूंढते हैं।
असलियत से कोसों दूर अपनों को ढूंढते हैं।
ढूंढने में हम अपनों को कहीं खो देते हैं ।
और सोचते हैं पराए हमारे अपने हो जाएंगे ।
मगर पराए कभी अपने नहीं होते।
क्योंकि स्वार्थ भरी इस दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं।
चाहे तो आजमा के देख लो यह दुनिया में कोई किसी का सगा नहीं।
क्योंकि हम वास्तविक दुनिया में नहीं आभासी दुनिया में अपनत्व को ढूंढते हैं।
