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Seema Mishra

Abstract

4.0  

Seema Mishra

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गाँव की स्त्री

गाँव की स्त्री

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प्राय:गाँव की स्त्रियाँ दुख में जीती हैं, और

पुरूष हमेशा अहम से भरे होते  हैं

वो डरी, सहमी एक खामोश तहजीब सी

रहती है समाज में एक तुक्ष्य जीव सी


पुरूषों को खूब भाता है स्त्री का गिड़गिड़ाना

बेचारी खुलकर हंसने से पहले देखती है उन्हें,

क्योंकि पुरूषों को नहीं भाता उनका

खुलेआम  बेवजह हंसना, मुस्कुरना


अंदर से कुड़तीहै स्त्री,बाहर जिम्मेदारी निभाती

फिर मायके की याद से खुद को समझाती

दादा, बाबा, चाचा, भैया जैसी ही है, ये दुनिया

साज, सिंगार, घूमना वहां भी हक में नहीं था


अपनी मनमर्ज़ी करना या गुस्सा दिखाना

स्त्रियाँ जीती है रोते रोते,

और पुरूष अहं से भरे आराम से सोते

खूबसूरत सपना बुनकर ससुराल आती,


सास, ननद, जेठानी को लाचारी में पाती

कहाँ मिला माँ की बेटी को रानी जैसा घर,

प्यार करेगा जीवन भर न ही ऐसा वर

छोड़के आई माँ का प्यार, यहाँ बनी है जान पर

हक पति का हो गया, सोच, दिल और दिमाग पर


बेचारी स्त्री मरती है, उस क्षण भर के झूठे प्यार से

उपभोग की वस्तु बनी, लगता है पुरूष व्यवहार से

खुद का मूल्य नहीं कुछ जाने, बस

पुरुष उसे अपनी जागीर समझते हैं


जब मन चाहा खड़ा किया जब जी चाहे गिरा दिया,

पुरुषों को ये संस्कार किसने दिया

छलते है हर वक्त उसे,जो सम्मान न्यौछावर करती है,

तब भी सब कुछ भूलकर, बच्चों को वो जीती हैं


पुरुष को उतार देती हैं आंखों से

अब खुद का दम वो भरती है प्रायः

गाँव की स्त्री ऐसे जीती है, और ऐसी ही मरती है।          


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