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गाढ़े अंधेरे में

गाढ़े अंधेरे में

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इस गाढ़े अंधेरे में

यो तो हाथ को हाथ नहीं सूझता

लेकिन साफ़-साफ़ नज़र आता है,


हत्यारों का बढ़ता हुआ हुजूम,

उनकी ख़ूंख़ार आंखें,

उनके तेज़ धारदार हथियार,


उनकी भड़कीली पोशाकें

मारने-नष्ट करने का

उनका चमकीला उत्साह,

उनके सधे-सोचे-समझे क़दम।


हमारे पास अंधेरे को भेदने की

कोई हिम्मत नहीं है

और न हमारी आंखों को

अंधेरे में देखने का कोई वरदान मिला है।


फिर भी हमको यह सब

साफ़ नज़र आ रहा है,

यह अजब अंधेरा है

जिसमें सब कुछ साफ़ दिखाई दे रहा है।


जैसे नीम रोशनी में

कोई नाटक के दृश्य।

हमारे पास न तो आत्मा का प्रकाश है

और न ही अंतःकरण का कोई आलोक।


यह हमारा विचित्र समय है

जो बिना किसी रोशनी की उम्मीद के

हमें गाढ़े अंधेरे में गुम भी कर रहा है

और साथ ही उसमें जो हो रहा है

वह दिखा रहा है।


क्या कभी-कभार कोई अंधेरा

उसी समय रोशनी भी होता है ?


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