एक्वेरियम की मछलियाँ
एक्वेरियम की मछलियाँ
कांच की दीवारों में, साँसों के स्पंदन
कसमसाती पूंछ, छटपटाते डैने
शो पीस सरीखा जीवन
रास न आयें इन्हें, थोपी हुई रंगीनियाँ
एक्वेरियम में कैद, सुन्दर देह वाली मछलियाँ
है नहीं तलछट से छनती धूप
अब इनके लिए
अरसा हुआ- लहरों की स्वर्णिम गोद में खेले हुए
चट्टानों की ऒट से, आखेट लुकछिप कर किये
मूँगों के झुरमुट में मानों, कौंधती थी बिजलियाँ
एक्वेरियम में कैद, सुन्दर देह वाली मछलियाँ
सिकुड़ गया, ज़िन्दगी का जादुई कैनवास
कुलबुलाती फिर रहीं, लेती हुई उच्छ्वास
चंद पत्थर, चंद कंचे, प्लास्टिक की घास
बनावटी शैवाल, खुलती बंद होती सीपियाँ
एक्वेरियम में कैद, सुन्दर देह वाली मछलियाँ... !