एक शाम ऐसी भी!
एक शाम ऐसी भी!
आज हूँ मैं चुपचाप बैठी
पलकें भी हैं सहमी- सहमी,
सर्दियों की शाम यूँ
गुनगुना के कह गई।
दिल में छुपा एक चेहरा
हर पल है जिसका पहरा,
आकर यूँ मेरे कानों में
गुदगुदी सा कर गया।
आँखों में हैं रंग कई
बिखरे पड़े पर आसमानों में,
रंगत बदल- बदल कर
चेहरे बना रहा कई
छलक कर आँसुओं ने भी
कर दिया बयां है सब!
होंठ हैं कपकपा रहे
नाम जिनका गा रहे,
लफ्ज़ आते हीं वहीं
रुक यूँ जाते हैं कि
हवाएँ घेर- घेर के
दिल को है बहला दिए!
पतझड़ की ये हवाएँ भी,
करती है बेईमानियां
चलती है यूँ सरसरा के
कि एहसास यूँ दिला गई
आहट वही सुना गई!
बारिश भी हुई यूँ धीमी सी
हल्की सी यूँ भिंगा गई,
न आग बुझी न प्यास बुझी,
इक आस यूँ तड़पा गई!