एक साथ
एक साथ


आखिर क्यों ऐसी सोच रखते हो
काले स्याह से सारा क्रोध,
इन कागजों पर निकालते हो।
पुरुष का वह चित्र,
जो हर जगह दिखाते हो
दरसल में पुरुष सिर्फ वैसा ही नहीं
वो कितना कुछ सहता है।
कभी माँ, कभी बहन,
कभी बेटी कभी पत्नी,
खुद से पहले वो
उनकी बातें सुनता है।
तंग जेब में हाथ डाले,
हजारों की बात करता है।
एक मजबूत कंधा उसका ही,
तूफानों से अकेला लड़ता है।
आसमान के इस कोरे कागज पर,
कहो पुरुष ! क्या लिख दूँ,
जो सत्य हो, जिसे पढ़कर
मेरी आत्मा ना धिक्कारे।
हाँ, सत्य ही है,
तुम्हारे बिना मेरा,
इस ऊँचाई तक
आना सम्भव ना था।
हाँ मैं, माना है ! मैं शरीर तो,
तो तुम आत्मा हो
हमें मिलकर चलना है,
बिना आरोप-प्रत्यारोप के।