एक प्रश्न
एक प्रश्न
चाहती चलना स्वयं वह
कह नहीं सकती कभी यह
जब डोर है हाथों और के
चलना सहना है जो कहे वह
लड़कियां हैं कठ पुतलियां
नाचती कूदती बाबुल अंगना
देखती खूब सुनहरा सपना
लेकिन लांघ सकती नहीं
दहलीज घर कभी अपना
पूरी करने अपनी मनमर्ज़ियां
जाकर अपने पति गृह भी
जीवन डोर सौंपी जाती
सास ससुर स्वामी जहां
सेवा आदर सम्मान नहीं अभी
उम्रदराज हो तो बारी बच्चों की
हाथों में डोर थामने रिश्तों की
हर हाल में कठपुतली सी नाचती
कभी किसी से उनकी परवाह न की
उंगलियों के इशारों पर
थिरकी जब तक
लड़कियों को भाग्यशाली कहें तब तक
डोर तोड़ आगे बढ़ना
स्वीकार नहीं जग को
भली लगती कठपुतलियां सी
नाचती लड़कियां
ये लड़कियां हैं क्या कठपुतलियां ?
पूछती हैं लड़कियां
लड़कियां हैं कठपुतलियां।
