एक नारी का जयघोष...
एक नारी का जयघोष...
उस स्त्री का उद्घोष ....कुछ ऐसा कि...
इस कुरीतियों से भरे हुए समाज का,
मैं बचा हुआ छोटा सा आकार हूँ !
अपराधों की दबी ढकी कोने में रखी किताब हूँ,
झुठ से ढकी हुई उदित सच्चाई क्या इजहार हूँ !
बुराई अच्छाई सत्य, भलाई का सरोकार हूँ,
अन्याय से दबे हुए न्याय की गुंज व पुकार हूँ !
स्वयं के सुख तो मुझे कभी याद नहीं रहते,
पर सहती हुई दुसरो के दुखों का भण्डार हूँ !
हजारों लोगों के ग़म लेकर भी मैं लाचार हूँ,
मैंने अपने कन्धों पर रखा हुआ एक भार हूँ !
इस समाज के बनाए हुए मूल्यों का आधार हूँ,
कोई रंग महल नहीं बस गरीबों का दरबार हूँ !
नकल से निरस हुई असल का सही सार हूँ,
शौक से पिरोई माला नहीं मेहनत का हार हूँ !
बल से हराये हुऐ निर्बल के अन्दर की टंकार हूँ,
पथ भ्रष्ट लोगों के सन्मार्ग काम ठीक विचार हूँ !
रोती बिलखती अबलाओं की चीख पुकार हूँ,
मैं अपने ही अस्तित्व को रोपने की हकदार हूँ !
बुझी हुई आत्माओं में भी एक नया संचार हूँ,
सोया स्वाभिमान जगाने वाली चौकीदार हूँ !
कागज़ पर उकेरती शब्दों का छायाकार हूँ,
फूल के संग पनपता हुआ सुगंध का हार हूँ !