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किरण वर्मा

Abstract

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किरण वर्मा

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एक ख़्वाब बनाम हक़ीक़त

एक ख़्वाब बनाम हक़ीक़त

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वो एक हसीन रात का मंज़र था 

चारों तरफ रोशनी थी और मुलायम-सा मेरा बिस्तर

दो चार कदम चल नीचे देखा, आगे देखा, पीछे देखा

मैं अचंभित आँखों को मसले जाने क्या अनुमान लगाती

मेरे मौहल्ले की गली में आज रोशनी का घेरा है

हर चेहरा पुराना है ये कुछ नया मौहल्ला-सा जैसा है


कल जिसने मारा था उसको, फिर वो रोई थी पड़ोस में

आज उसी हाथ थामकर, वो उसके साथ ही सोया है,

आधी रात तले लड़कियां, हंसी-ठिठोले करती-फिरती,

मुझे इस बंद कमरे से मुझको जैसे कोई आवाज़ लगाता

मन मे उल्लास भरा है, अब मैं उस भीड़ से नहीं डरती हूँ


अपने क़दमो को उठाय, मैं दर- दर घूमती-फिरती हूँ 

जिनके दर्द सुने`थे दिन मे, उन चेहरों को तलाशती हूँ।

खुशियों की बारात-सी जैसे उनके घर मे बजती हो,

मेरे हाथों को पकड़ कर जैसे उसने जैसे खींचा हो।


हाथों का स्पर्श सा पाकर मैं खुशी से झूम उठी,

हर चेहरे की मुस्कुराहट मुझे जैसे उस भीड़ में खींच चुकी 

मैं जो चाहकर भी न कर सकी, इस रात ने कर दिखाया है

आज रात गए अपने मौहल्ले में, मैं ज़ोरों से हँसती हूँ,

हँसता है पूरा मोहल्ला , मैं न आज अकेली हूँ।


न बदलेगा कुछ भी अब बीती हुई रात की तरह 

यही सोचकर मैं बिस्तर पर, हँसकर करवट लेती हूँ।

मेरे गालों को खींचकर मम्मी मुझसे कहती हैं, 

उठजा बेटा सपनों मे , तू क्यूँ इतना हँसती है।

मैं अपनी आंखों को खोले फिर से अब, 

इस हकीकत पर हँसती हूँ..... 



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