आत्म विमर्श
आत्म विमर्श
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तन्हाइयों में अक़्सर
बिखर जाती हूँ
छुईमुई सी बनकर
सिमट जाती हूँ
जो दोस्त आवाज़ देकर
दो-चार सुनाकर
मुझे झंझोड़कर
रख देते हैं
शाम की चाय की
चुस्कियों के संग
मेरे और मेरे वज़ूद के
होने का इल्म देते हैं
तो क्या कहूँ फिर से
कुछ नई हो जाती हूँ
फिर से एक उड़ान
भरने के ख़ातिर
चाहतों के पंख फ़ैलाती हूँ।