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Prashant Beybaar

Abstract Classics

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Prashant Beybaar

Abstract Classics

एक-एक कर कितनी रातों की राख झड़ गयी

एक-एक कर कितनी रातों की राख झड़ गयी

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एक-एक कर

कितनी रातों की राख झड़ गयी,और गिर पड़ीं

झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें। एक-एक कर

कितनी सुबहों का चूरा

गिरता रहा कैलेंडर से,

रोज़ झाड़ू से सूखे दिन झाड़फेंकता रहा हूँ बाहर


आ जाओ अब, कि

दीवार पे कील से

सूनापन टँगा है। ~ बेबारएक-एक कर

कितनी रातों की राख झड़ गयी,और गिर पड़ीं

झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें। एक-एक कर

कितनी सुबहों का चूरा

गिरता रहा कैलेंडर से,

रोज़ झाड़ू से सूखे दिन झाड़फेंकता रहा हूँ बाहर


आ जाओ अब, कि

दीवार पे कील से

सूनापन टँगा है। 


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