एक-एक कर कितनी रातों की राख झड़ गयी
एक-एक कर कितनी रातों की राख झड़ गयी
एक-एक कर
कितनी रातों की राख झड़ गयी,और गिर पड़ीं
झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें। एक-एक कर
कितनी सुबहों का चूरा
गिरता रहा कैलेंडर से,
रोज़ झाड़ू से सूखे दिन झाड़फेंकता रहा हूँ बाहर
आ जाओ अब, कि
दीवार पे कील से
सूनापन टँगा है। ~ बेबारएक-एक कर
कितनी रातों की राख झड़ गयी,और गिर पड़ीं
झुलसी हुई दुपहरी, मानूस शामें। एक-एक कर
कितनी सुबहों का चूरा
गिरता रहा कैलेंडर से,
रोज़ झाड़ू से सूखे दिन झाड़फेंकता रहा हूँ बाहर
आ जाओ अब, कि
दीवार पे कील से
सूनापन टँगा है।
