एक अधूरी कहानी....तुम!
एक अधूरी कहानी....तुम!
मुकद्दर की किस अदालत में करें सिफारिश तुम्हारे लिए
जब गुनाह भी तुम, सजा भी तुम...!
खुदा से दुआ में मांगे भी कैसे इनायत तुम्हारी बिना किसी हर्ज़
जब कर्ज़ भी तुम, मर्ज़ भी तुम...!
तुमसे रूठ कर भी किस दर जाएं...
जब इन आंखों की हया भी तुम, गिला भी तुम...!
तुम्हारी धूप से खुद को कैसे बचाएं...
जब इस जिंदगी के सावन भी तुम, पतझड़ भी तुम...!
तुमने जो दी है अश्कों की नमी तो कैसे खुद को रिझाएं...
जब लबों की प्यास भी तुम, हर एहसास भी तुम..!
क्या करें बढ़ाकर भी तन्हाइयां, बेचैनियां,
जब रब ने ही लिखी है वीरानियां, अलग तेरी मेरी जिंदगानियां..!
अनचाही अंजानी ख्वाहिशों के पीछे क्यों फना हो चले...
जब इबादत से भी खूबसूरत दोस्ती लगी है तेरी आकर गले...!
कभी फिर किसी दौर, किसी मोड़ करेंगे इंशाल्लाह सिफारिश तेरी
आखिर तुझसे ज्यादा भला कौन समझे भीगे नैनों की भी शरारतें मेरी...!
इक गुनाह के लिए भले हो तू नाराज़,
सुकून बस इतना, ना रहा दरमियां कोई राज़...!
जाना है तो जा क्या रोकूँ, क्या शिकवा करूं तुमसे..
बस जब भी मिलना मुस्कुरा कर मिलना, ना बेगानी ना बेरुखी करना मुझसे...!
ना कोई रंजिश, ना तुझ पर कोई बंदिश
ना होगी मेरी उड़ान तुझसे कभी बंधित...!
किसी बरस तुम्हारी यादों के गलियारे जब भी रिमझिम घटा बरसेगी
हमारे नाम से भी धूप मद्धम और पतझड़ में भी खुमार नई महकेगी...।