दुनियां से
दुनियां से
दिखावे की इस दुनिया से ,
रहता हूं मैं थोड़ा दूर,
अपने कर्मो की दुनियां में ,
रहता हूं मैं अपने सुरूर से ,।
बंगले में रहूं या बस्ती में,
रहता हूं अपने मस्ती में,
परवाह न करता दुनिया की,
चलती है किश्ती सच्चाई की,।
दुनियादारी को छोड़ा मक्कारी पे,
ईमानदारी भी गई सरकारी से ,
कुछ न बचा किरदारों में ,
सब कुछ गया संस्कारो से ,।