दर्पण
दर्पण
दर्पण धूमिल हो गया, या बदले हैं लोग।
शक्ल चमक बेदाग सी, भीतर शामिल भोग।
साफ करे दर्पण सदा, दाग किधर है देख।
अंदर बाहर है घनी, भेदभाव की रेख।
हँसता दर्पण देखके, रोज़ नए अंदाज़।
बाह्य रूप संवारता, भीतर भी तो साज।
मैं दर्पण हूँ बाहरी, कैसे पाऊँ आँक।
नयन मिला खुद आप ही, अपने भीतर झाँक।
