दर्पण
दर्पण
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ में, जिसमें खुद को देख पाऊँ मैं,
कभी नैनों में आंसू आए तो, उसे स्वयं ही पी जाऊं मैं,
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।
जहाॅं दिखे बीते वर्ष की भूलें, जहां मिले नए अवसर मुझे,
जीवन नया-नया सा लगे, जहां गलतियाॅं सुधार पाऊँ मैं,
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।
जहां देखूं संसार की सच्चाई,
झूठे लोगों के सच्चे चेहरे हों,
जो कहना हो वही कहें,
झूठ और सच को पहचान पाऊँ मैं,
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।
कुछ झूठ ऐसे सुने मैंने, सच भी सच ना लगे,
सच्चे को झूठा बोल दिया तो,
कैसे उन्हें मनाऊं मैं।
कोई दर्पण ऐसा पाऊं मैं।
क्या है कोई ऐसा भी जिसकी आंखें सत्य भी कहती हैं,
सहानुभूति है या मगरमच्छ के आँसू, इतना ज्ञान पाऊँ मैं।
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।
वे लोग मुझसे रूठे हैं, शायद दोष मेरा ही है,
जब मुझे ना मनाए कोई, तो खुद को आप ही मनाऊँ मैं।
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।
प्रेम के धागे संसार में खुले हुए हैं, बांधे सबको,
जो तोड़े से भी ना टूटे, वो सच्चा प्रेम पाऊँ मैं,
कोई दर्पण ऐसा पाऊं मैं,
कोई दर्पण ऐसा पाऊँ मैं।