दरख़्त
दरख़्त
सर्द हवाएं चल रही और बर्फ़बारी का वक़्त है,
वहीँ दूर खड़ा हुआ है, इक यख़बस्त दरख़्त है!
दरख़्त जिसमें अब नहीं बाकी रही कोई जान है,
फिर भी ऐसे खड़ा हुआ, जैसे कोई अभिमान है!
कभी तो गुलशन की शान बढ़ाई होगी दरख़्त ने,
अभी तो बना हुआ ख़िज़ाँ का अविजित तख़्त है!
सफ़ेद बर्फ़ीली चादर से झाँक रहा दरख़्त काला,
वक़्त के सारे सितमों को ताक रहा दरख़्त काला!
अब तो छोड़ चुका है ये जीवन संचार की आशाएं,
उसके मन में पल रहा दुःख रहा सदा अव्यक्त है!
कब से प्रतीक्षारत है, आये इस पे कोई कोंपलें तो
,स्वयं को सिंहासन से मुक्त कर शासन सौंपने को!
इतने में कोई आता है और उसे काटके ले जाता है,
जल रहा है कि सारी आशाएं, तृष्णाएं परित्यक्त है!
