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Prem Bajaj

Abstract

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Prem Bajaj

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दर्द

दर्द

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क्यूँ कभी कोई दर्द उभर आता है,

क्यूँ कोई ग़म फिर से सताता है।


क्यूँ आँख भर आती है,

क्यूँ दिल में ग़म की गहराई छाती है।


क्यूँ रिश्तो की गहराई को ईँचो में नापा जाता है,

क्यूँ प्यार को तराज़ु में तोला जाता है।


क्यूँ सपनों से अपने ही जगाते है,

क्यूँ कोई सपना प्यारा लगता है।


क्यूँ फूल भी कभी पत्थर से लगते है, क्यूँ कोई बेगाना भी अपना लगता है।


क्यूँ पल में मन से मन मिल जाते है,

क्यूँ पल में पराए अपने हो जाते है।


क्यूँ कभी ग़ैरो की तकलीफ भी अपनी लगती है,

क्यूँ कभी किसी के लिए हर तकलीफ हम सहते है।


क्यूँ कभी दर्द में भी दर्द का एहसास नहीं होता,

क्यूँ कभी अपनी ही परछाई से भी डर लगता है।


क्यूँ कभी मन पे बादल छाते है,

क्यूँ कभी मन मयूरा नाचने लगता है।


क्या है ये दर्द... अपना भी है,

बेगाना भी है, असहनीय भी है,

और प्यारा भी है,

हम सभी तो इन्ही दर्दो के साथी है...


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