दो पैसे की कमाई
दो पैसे की कमाई
इक अदना सा आदमी देखा, मैंने,
भर दुपेहरी, पसीने में लथपथ,
दो ही तन पे कपड़े पहने,
ख्वाईश भी थी, दो आने लगभग,
कदमो में रफ्तार थी उसकी,
भीड़ को चीरती निगाहें फिरकी,
छोटे कदम और दूरी छोटी,
पर हाथ की पकड़, मजबूत थी उसकी,
हाथ–रिक्शा, केहतें हैं, जिसको,
कोलकाता में चलता, आज भी है जो,
पुकारता अपनी सवारी फिर वो,
कहने को उसकी गाड़ी थी जो,
मैने पुछा, क्यों करते हो ये सब,
दो पैसे की खातिर, साहिब,
जवाब, छोटा ही चाहे था उसका,
पर सोच मेरी गहरी क्यूं है,
आज भी इंसान, यूं है दहका,
बोझ, दूजे का, उठता क्यूं है,
दो पैसों की खातिर, चाहे,
हाथ–रिक्शा चलता क्यूं है।