दिनकर एक याद
दिनकर एक याद
निब निकल जाती कलमों से जब दहक जाते अंगारे
आज यहाँ कौन है..? जो दिनकर की भाषा उच्चारे
वो समय का सूर्य था जो काले मेघों को दहकाता था
अपनी ज्वलंत लेखनी से हुकूमत को राह दिखाता था
लाखों द्वंद थे उसके जीवन मे, पर उन्मुक्त मन था
गुलाम होने का ख्याल बुरा और कठिन जीवन था
रामधारी से "दिनकर" बनने का क्या अजब संयोग था
देश हित मे सब करे निछावर बस ऐसा मनोयोग था
जब वो नर सिंह गरजता था तो सत्तायें थर्राती थी
जुबां से निकले अंगारे, शासन को आँख दिखती थी
ऐसा नहीं की उसने केवल गोरों का ही विरोध किया
लोकतंत्र कैसे चले निज साथियों का भी बोध किया
उसकी हर एक पंक्ति को लोग गीता समझ लेते थे
नारा लगा लगा कर सिंघासन खाली करा लेते थे
वो काल का जलता हुआ, धड़कता हुआ, सूर्य था
मर्त्य मानव के विजय का एक अलौकिक तुर्य था
ऐसे कालजयी "दिनकर" को मैं पुनः आज दोहराता हूँ
अपने टूटे फूटे शब्दों से उनको श्रंद्धाली चढ़ाता हूँ।
