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Vijay Kumar parashar "साखी"

Abstract

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Vijay Kumar parashar "साखी"

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दीया जलाकर बैठे हैं

दीया जलाकर बैठे हैं

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अपनों की महफ़िल में बेगाने होकर बैठे हैं

अपने ही लहू से हम अनजाने होकर बैठे हैं


जगत में बिना चोट कोई सीख देता नही हैं

पत्थरों से सिर टकरा हम फूल होकर बैठे हैं


जग के प्रपंचो ने हमें जीना सीखा दिया हैं

आग में रहकर हम भी पानी होकर बैठे हैं


बिना दर्द किसी मर्ज़ का ईलाज़ होता नही है

हरमर्ज की दवा से हम ठोकर खाकर बैठे हैं


जगत में कोई उजली रात हमारी भी होगी,

हर अमावस में हम भी दीया जलाकर बैठे हैं।



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