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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics

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Rajiv Jiya Kumar

Abstract Classics

☆धूल का फूल☆============

☆धूल का फूल☆============

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सिसकती जिन्दगी का

थामने को छोर

अहले सुबह से उसने

लगा रखा है

अपना पूरा जोर,

जानी पहचानी ज्वाला

जाना पहचाना हर शूल

लपक लपक चुुुुनता

वह रोटी दो जूून

धूल धूसरित दिखा

समाज का ईक फूल।।

फिक्र जननी,जनक की

यह नही कोई सनक थी

अपितु संज्ञान है उसे कि

गर नही करता कर्त्ता बन

तो उजङेगा वह

सजाता हरपल रहा

जिसे जतन से बङे,

सोचता यह बढा वह

संभाल लेेगा सब

दीवार, छत और चूल,

धूल धूसरित दिखा

समाज का ईक फूल।।

तपन क्षुुुधा की

करे शोर,जोर जोर,

प्रतिक्षित आश्रित नयन सारे

देखते बार बार 

कुनबे मेें उस

प्रवेश होने का वह द्वार 

वह है तो

उन बेेचैैैनी को है करार,

वह भी यह

नही भूलता कभी

नीयत उसकी 

करती नही कभी भी

ऐसी कोई भूूल,

धूल धूसरित दिखा

समाज का इक फूल।


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