धर्मराज खेले जुआ
धर्मराज खेले जुआ
खेल खेल हे धर्मराज! खेल आज तू जुआ
आज मिटा तू बन धर्मराज बन धर्म की सीमा।
ले पकड़ हाथ मे पाँसे तू ला फेंक जरा इन्हें तू चौपड़ में
वो खड़ा सामने गांधारनरेश इसे मौके में।
अरे हुआ ये क्या ! चला गया सब धन्य- धान्य
ना-ना रुक ना अभी तो है जीतने के अवसर महान।
हाँ-हाँ लगा दे दाँव पर चतुरंगिणी सेना अपनी
हाँ बचे हैं महल दुर्ग और उपवन अभी भी।
ये समय की माया हैं या शकुनि की छाया हैं
सब गवां रहा हैं तू पर जीतने की आशा हैं।
अब हैं क्या बचा तेरे पास बिना राज्य के सम्राट
हाँ! जिन्होंने ये राज्य बनाया चहु दिशा विजय का
परचम लहराया।
उन भाइयों का धर्म यही है धर्मराज
लगा दिए जाएं दांव पर समझकर वो वस्तु आज।
लो लगाया दांव पर सहदेव
पर ये शकुनि तो जीतता जाता हैं।
सहदेव से लेकर भीम स्वयम को दास बना पाता हैं।
अरे! मैं भी हूँ अभी लगने को दांव पर
बैठा आज धर्मराज बन वस्तु चौसर के दांव पर।
पर ये कपटी पाँसे धोखा दे गए
अब तो तुझे भी ये कंगाल कर गए।
खेल खेल हे! धर्मराज ना खेल तू ये जुआ
आज बचा ले बन धर्मराज धर्म की गरिमा।
पर धर्म है क्या एक क्षत्रिय का चुनौती से हट जाना
जब पास पड़ी हो यज्ञसैनी सम सुंदर माया।
भूल गया क्या धर्मराज वह वस्तु नही स्त्री हैं
वह हैं दास परन्तु वह अब भी साम्राज्ञी हैं।
तो चल चल फिर पासे आज धर्म को लुटता देखे
आज वीरों से भरी सभा मे स्त्री का अपमान देखे।
ले आया केश पकड़ कर दु: शासन उस वस्तु को
मन इतने से भी नही भरा तो कहे एक वीर वैश्या उसको।
करे इशारा युवराज आ बैठ मेरी जंघा पर
और दे आदेश की वस्त्र उतर जो हैं तन पर।
एक धर्मराज, एक महावीर , एक धनुधर मौन रहा
एक वृद्धवीर एक महान गुरु बन पत्थर जड़ रहा।
क्या हैं धर्म ये धर्मराज ये प्रश्न तो अनुत्तरित रहा
इस कुरुक्षेत्र के युद्ध मे हाथ तो तेरे धर्म का ही रहा।
अब खेल खेल हे धर्मराज खेल तू जुआ
हर युग मे खेलेगा एक धर्मराज फिर जुआ।