देवदासी
देवदासी
नारी की यह करुण कहानी
सदियों से होती आई है मजबूर
कोमल वय में नाचने गाने को
और समर्पित होना देव चरणों में।
जीवन रेखा इनकी अंधियारी है
विद्या नहीं,नाच गान ही जीवन है
देवता के चरणों की दासी बनना
तो बस विवशता का नाम भर है।
शृंगार कर नृत्यरता है एक
क्षीणकाया बालिका घुँघरु पहने
सुन्दर सी साड़ी में लिपटी हुई
पर माहौल है उदास उदास।
यह तो लाचारी है ग़रीबी की
भोग्या बनेगी आभिजात्य की,
या उन तोंदीले हवसदारों की,
दलित समाज की विडम्बना।
बैठी हैं उदास तीन नारी
दो खड़ी हैं लाचार सी
एक नर ढोलक बजा रहा
खड़ा है वह भी पास में।
उसके सिर पर पगड़ी है
अधोदेश में ऊँची धोती है,
ऊपर उत्तरीय जनेऊ नहीं
वह लगता दुबला बेचारा सा।
किसी के चेहरे पर हँसी नहीं
प्रसन्नता का कोई भाव नहीं,.
न कोई हर्ष है न उल्लास
सबके चेहरे हैं गमगीन से।
वातावरण में चुप्पी और
लाचारी छायी लगती है,
लड़की की परछाईं पड़ रही
जो दिन का समय बता रही।
श्वेत श्याम है चित्र बना
कोई रंग नहीं जीवन में,
क़ानून से वर्जित है फिर भी
लाचारी से बेबस घुटन है।
