देश और प्रकृति ।
देश और प्रकृति ।


हूँ देश मैं नहीं खिलौना,
हर द्वेष पे तोड़ना जलाना।
फ़र्क़ पड़ता क्या तुमको इससे,
हर विपदा में लेते आँचल जिससे।
हो कुछ शर्म तो अब रुक जाओ,
एक-एक मिट्टी का मोल चुकाओ।
नहीं साहस अब मुझमें और,
थाम हाथ न खींचो दामन और।
करते सुरक्षा ख़ुद की पल-पल,
मल को करते मुझमें विलीन।
दूषित करते हर प्रकार से,
तन,मन को कर अपने म
लीन।
दोहन करते मुझसे मेरा,
कर प्रदूषण मुझमें भरते।
मुझे डराते ख़ुद न डरते,
हर घाव बस मुझमें भरते।
हूँ प्रकृति प्रकोप भी बनती,
ख़ुद की रक्षा को जब तनती।
हर ज़ख़्म का मर्ज़ भी लेती,
होने का अपने ऐहसास जब देती।
है मौक़ा अब ठहर जाओ,
हाथ बढ़ा साथ मुझको लाओ।
जीवों में समता बनाओ,
ख़ूब सारे पेड़-पौधे लगाओ।