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Surendra kumar singh

Abstract

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Surendra kumar singh

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डर का इंद्रधनुष

डर का इंद्रधनुष

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हमारे मन के आकाश में

उगता है डर का इंद्रधनुष

उगता है, फिर तिरोहित हो जाता है

नयी सुबह की नयी रौशनी में।

डर तो डर है

सभी डरते हैं

सबका अपना अपना डर है

और सबकी अपनी

अपनी वजहें हैं


डर एक आयाम अनेक

डर एक रंग अनेक।

किसी ने कहा डर अच्छा है

अगर अच्छा नहीं होता तो

होता क्यों, होता कैसे।

अब कोई मुझसे कहे

भगवान से डरो

बड़ा अजीब लगेगा वो शख्स मुझे

अब अगर भगवान से डरे तो

प्रेम किससे करें

फिर भी कहते ही रहते हैं लोग

भगवान से डरो।


फिर भी डर लगता है मुझे

एक सिलसिला सा है डर का,

पहले डर लगता था हम मर जायेंगे

अब नहीं रहा

फिर डर लगने लगा अकेलेपन से

अब नहीं रहा, तुम जो आये

फिर डर लगने लगा आदमी के

अंदर के

शैतान के भयानक चेहरे से

अब ये भी नहीं रहा

डर हालात सा आया और

चला गया।


आजकल फिर मेरे मन के

आकाश में

डर का इंद्रधनुष उगा हुआ है

मैं डरते डरते

आहिस्ता आहिस्ता उसकी

तरफ बढ़ रहा हूँ

एक सम्मोहन सा है उसका

मुझ मे

और मैं डर रहा हूँ

क्योंकि तुम अपने होने से

इनकार कर रहे हो

और वो नफरत से प्रेम

कर रहा है

उम्मीद तो है

तुम अपना होना स्वीकारोगे

और वो नफरत से जुदा हो जाएगा।



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