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क़लम-ए-अम्वाज kunu

Abstract Tragedy Classics

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क़लम-ए-अम्वाज kunu

Abstract Tragedy Classics

डगर कितनी भी कांटों में हो

डगर कितनी भी कांटों में हो

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डगर कितनी भी काँटों में हो

सफर में हमेशा अडिग रहा हूँ 


हर राह हर कदम साथ रहा सबके

मगर आज मेरी परछाई पे भी शक रहा है 


कैसे साबित करता कुछ भी 

जब मेरे नियत पे भी भ्रम रहा है 


बस होने को हो रहा सबकुछ अब 

मैंने सबकी जुबान पे खंजर रख दिया है 


टूट टूट कर अलग हो बिखर जाओगे ए कामिल

ख़ामोश हो तुमने वजूद को भी नीलम कर रखा है।


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