चल पड़े हम
चल पड़े हम
तैयारी बहोत अच्छी ना थी,
पर इरादा बेशक अच्छा था,
मंज़िल का ठिकाना ज्ञात तो था,
पर सफर के लिए अभी बच्चा था।
यूँ तो पग रस्तों को चूमना चाहते थे,
शीश भी हवा में झूमना चाहते थे,
पर वह क्या था जो मुझे रोक रहा था,
ऐसा तो कोई न था जो टोक रहा था।
हम भी क्या करते,किस सोच में पड़ते,
क्या अपने ही ख़्वाबों से लड़ते?
ऐसे में फिर कुछ न समझा,
कुछ न बूझा...चल पड़ा मैं..
मंज़िल की ओर, पाने वो छोर,
इक ऐसा डोर, हो चारों ओर,
खुशियों का शोर,
कभी सांझ, कभी भोर,
कहीं हिरन, कहीं मोर,
कभी नरम, कभी कठोर।
क्या ऐसा सच में है होता?
सोच में था..
कल्पनायें ऐसी ही बना,
उसकी खोज़ में था..
सच कहूँ तो वह खोज़,
अब भी जारी है,
बस फर्क इतना-सा है,
इस बार फ़तह की तैयारी है।
