चिट्ठी जो लिखी पर पढ़ी नहीं
चिट्ठी जो लिखी पर पढ़ी नहीं
शब्दों के ताल से कुछ
घड़े पानी के निकाले थे
छिड़का उनको पन्नों पर,
कब अल्फ़ाज हुए न पता चला।
चिट्ठी थी या सिर्फ कागज था,
भावों का कर्ज बराबर था
जो चुका दिए फिर लोग कहेंगे,
शायद कुछ खोट तुम्हारा था।
मन की हर बात लिखी उसपर,
कुछ बडीं सी थीं, कुछ बचकानी
फिर सोचा शायद ये पैग़ाम नहीं,
ये चिट्ठी थी जो कभी पढ़ी नहीं।
