चिर निद्रा
चिर निद्रा
ये ज़िम्मेदरियाँ
मुझे सोने नहीं देती
सब कुछ भूल कर
निश्चिंत होने नहीं देती
जिनसे होता है प्यार
उनका अलगाव
कहाँ सोने देता है मुझे
रिश्तों का बिखराव
अधूरी इच्छाएं कुछ
पूरी होने की खातिर
कई बार ले जाती हैं
मुझे नींद की
दहलीज़ तलक
जी उठती हूँ फ़िर
मै जैसे नींद में
बजने लगती है
साँसों में सरगम
दिल जाता है धड़क
खुलते ही आँखें
फ़िर वही हाल है
ठोकरे खा खा कर
ज़िंदगी बेहाल है
रिश्ते निभाने का हासिल
सिर्फ़ ओ सिर्फ़ मलाल है
जान चुकी हूँ असलियत
तो हर रिश्ते से दूर
अब होना चाहती हूँ
थक चुकी हूँ बहुत
चिर निद्रा में बस
अब सोना चाहती हूँ...........
