चांदनी
चांदनी
कौन कहता है तुझ में दाग है
नज़रों से मेरी देख जरा
काली रात की तू उज्जवल करामात है
धवल श्वेत बिखरती तेरी नरम चांँदनी
लहरें बिखेर रही सौम्य तारों पर रोशनी
यह तुझको स्पर्श करती लम्हा- लम्हा सर्द हवाएँ
मुझको भिगो जाती तन्हा-तन्हा मध्यम तेरे साए
कुछ मेरे ख्वाबों की खुशबू तेरी दहलीज़ पर है
ऐ चांँदनी तुझे देखने की पलभर मेरी मन्नत मुरीद है
तुझमें झिलमिलाती कुछ रंग में भीगी मेरी आरज़ू है
अंबर की पाक सुराही से एक घूंँट जो मैंने तेरी पी है
आना कभी इक शाम मेरे दर पर तू ढलते- ढलते
जी भर आगोश में लेंगे तुझे मुलाकात खास करते-करते
करती है तेरा जिक्र मुलायम घास पर पड़ी ओस की बूंँदे
रजनीगंधा संग आलिंगन कर तुझे ले बाहों में झूलें
संगमरमर सी बेनूर चमकती मोती बिखेरती तू
वो बहती हवा है गवाह जब पहली दफ़ा शर्माई तू।
