STORYMIRROR

राही अंजाना

Abstract

1  

राही अंजाना

Abstract

बुढ़ापे की सनक

बुढ़ापे की सनक

1 min
77

ख्वाइशें हर एक रोज हमसे झगड़ती रहीं

अंजान होकर के खुद पर ही अकड़ती रहीं


समझाया बहुत मगर समझी एक बार नहीं

हर बार चेहरा बदलकर मुझको पकड़ती रहीं


बचपन से जवानी तक आदतें पाली इतनी

के ताउम्र बुढ़ापे की सनक उन्हें अखरती रहीं।


 


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract