बिन त्याग
बिन त्याग
बिन त्याग सभी को इस युग में
अधिकार अधिकतम करना है
किसी को राम नहीं रहना
बस परशुराम ही बनना है
छोड़ना किसी को पसंद नहीं
थाली में एक कौर भी किसी के लिए
पर रोटियां किसको कितनी मिलेंगी, तय करना
ये शगल सभी को करना है
सेवा नहीं अब , व्यापार से कम
इंसानों के रेले में दुकानों का संगम
वनवास में किसी को नहीं तपना
सीधे अयोध्या पर राज करना है
संघर्ष की चटनी कौन पीसे मेहनत के सिलबट्टे से
कौन जमीर की आग जलाए दिल में अंग गट्टे से
सबको डिब्बा बंद गफलत की लत लग गई है जैसे
किसी को किसी का इंतजार कब करना है
घर रहे तो राम थे, वन गए तो पुरुषोत्तम
भगवान कहलाये क्योंकि सब सहने का था दम
अब सिर्फ नाम रखे जाते है राम के
युद्ध में संघर्ष ही नहीं तो तमगों का भी क्या करना है
