बिखरा चांद
बिखरा चांद
जिस चांद को हम देखते थे
वो चांद सौ टुकड़ों में बिखरा पड़ा है
उस चांद की चांदनी भी कहा
जिसका घर खुद अंधेरे मे ंपड़ा है।
वो पत्त्तो की सरसराहट भी बंद हो गई
जो तेरे आनेसे होती थी
अब सब कुछ शांतसा है
जैसे कोई छाया मातमसा है।
हम तो उस सागर की लहरों से भी जलते थे
जो तेरे पैरों को चूमती थी
डरती होगी शायद मेरी ईर्ष्या से
वरना चुमके भाग क्यों जाती थी।
वो आज गलिया भी सुनी लगती है
जो तेरे आने से भरी लगती थी
उस हवामे अब खुशबू नहि हे तेरी
जो तेरी आनेकी आहट लगती थी।
हमे तो इंतजार था तेरे आनेका
उस गलियों में तेरी खुशबू को महसूस करने का
उस पत्तों की सरसराहट की आवाज़ सुनने का
इस बार चूमने देते उन लहरों को भी
और समेट लेते उस चांद को भी
जो मुंतशिर हो चुका था।
