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Akanksha Hatwal

Abstract

4.5  

Akanksha Hatwal

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बिक गया

बिक गया

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234


शिकन की करवटों में रातों का ख़्वाब बिक गया

कोरी है आँखें, नमी का सैलाब बिक गया


के परिंदे ने उड़ना शुरू किया कि रात आ गई

ख़ाली पड़ा है आसमां आज महताब बिक गया


सवाल को ख़ामोश करता हर जवाब बिक गया

सवेरे के आते ही, हर नकाब बिक गया


बेस्वादी सी छाई है इस देह के बाज़ारों में

रूह को लुभाने वाला वो स्वाद बिक गया।


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