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Akanksha Hatwal

Inspirational

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Akanksha Hatwal

Inspirational

नारी प्रेम की मूरत

नारी प्रेम की मूरत

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किसी के आँगन का गुलाब थी ,

फिर सूख कर काँटा हो जाती है।

अपनों की ख़ुशियों के ख़ातिर,

जाने कितने संघर्ष ढो जाती है।


बंज़र पड़ी इस दुनिया में,

वो उपजाव बीज बो जाती है।

जीती है सबके सपनों की पूर्ती हेतू,

खुद के सपने ही खो जाती है।


अश्रुओं को नेत्रों के भीतर छुपा कर,

सबको वो हँसा जाती है।

कोई इनसे भी पूछेगा इनका दुखाना,

इस झूठी उम्मीद के च़राग बुझा जाती है।


खुद पी के दुनिया रुपी ज़हर को,

सबको अमृतपान वो करा जाती है।

घर बनता नहीं केवल ईंट प्रस्तरों से,

नारी मकान को आशियाना बना जाती है।


प्रेम का प्रतीक समझो,या स्नेह की देवी ,

जाने कितनी नफरत सहकर भी

सबको प्रेम दे जाती है।

हिम्मत का इनका कोई मुकाबला है नहीं,

मुरझाती सी डाली पर ये फूल खिला जाती है।


कभी दुत्कार, कभी घृणा,

कभी ज़ि़ल्लत की भागीदार रही,

कोई गिला नही रखती मन में,

सब हँसते हँसते टाल जाती है।

हर दिन इनका संघर्ष सा,

हर रात जैसे तपन,

फिर भी उठकर हर प्रभात ,

सबको जीने की वजह दे जाती है।


हर क्षेत्र मे अव्वल है,

हर काम बखूबी जानती है।

है देह एक लेकिन सौ किरदार

निभा जाती है।

हुस्न को कोमल समझने की

ग़लती करता है ज़माना।

इस हुस्न की आड़ में

कितने अंगार ले जाती है।



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