बीमार इश्क, बेकार इश्क
बीमार इश्क, बेकार इश्क


घिन्न आती है मुझे ,
जब भी कहानी का पहला
लड़का हार जाता है।
अवसाद से भर जाता हूँ
जब भी मजाक की केन्द्र बिन्दू में
मोहब्बत होती है।
जिस्मानी रिश्ते के तवज्जो
जब खोखला कर देते जज्बात को
औंधे मुँह, लहुलुहान मालूम पड़ता है,
खामोश और तहजीबदार इश्क
समर्पित इश्क, अविरल इश्क।
घिन्न आती है जब गाली देते हैं
पुरानी प्रेमिकाओं को
स्वैग से बनते है विडियो,
एक्स और सेक्स पर हँसने को
मानो कैनवास पर
ओछापन पोता जा रहा हो
बन रहा हो बेलज्जत चित्र।
जॉन की नज्में रोती है
जब कौड़ियो के भाव
पड़ोस दिऐ जाते हैं इश्क को
बू आती इन सबसे।
बू आती है धुर्तता की,
कहानी के दूसरे किरदार से।
तुम कैसे हँस पाते हो ?
तुम अवसरवादी हो
>धारा ३७७ का समर्थन करते हो
कल फिर से उस पर हँसने के लिऐ।
तुम मौन अट्टाहस से अन्जान हो
क्या तुम बादल नहीं महसूस करते ?
सुर्य के अस्त से,
उदय के बीच का पल जकड़ता नहीं तुम्हें ?
भीड़ से एंकात की बू नहीं आती ?
क्या कुछ सहेजना,
आत्मसम्मान खोना है ?
क्या तुमने स्वप्न में कभी कविताऐं सुनी हैं ?
क्या तुम जानते हो ?
टीस रात के कौन से प्रहर में
अपनी परकाष्ठा पर होता है।
नासूर दर्द के दंश के प्रहार से अंजान हो न ?
एकांतवास नहीं सहा तुमने कभी।
तुम्हें अब बू आ रही होगी मुझसे
हँसना तय है, मेरी उच्चश्रृंखलता पर तुम्हारा।
मुझे घिन्न आती है, सांस जकड़ती है
मानो घाव पर नमक लेप रहा कोई।
जब भी तुम कैनवास पर
लज्जत चित्र बनाने आ जाते हो सरेआम !