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विनोद महर्षि'अप्रिय'

Abstract

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विनोद महर्षि'अप्रिय'

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कसक

कसक

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हम तो दिलो में चिराग जलाए बैठे थे

गैरो को अपनाए हुए बैठे थे।

क्या पता था कि पाला हुआ ही डसता है

अपने ही आंगन में जहर उगाए बैठे थे।


पर चंद अल्फाज ही सब कुछ नही है

मेरा स्वाभिमान कभी डिगा नही है

उतरा अपनी पर तो लहरों को मोड़ दूगां

कसक मिटाने मैं अपनो को भी छोड़ दूँगा।


कोई कह दे जाकर उनसे की अब बहुत हुआ

दिल का प्रेम दिखाकर तीर मारना बहुत हुआ

सत्य हूँ और सत्य रहूंगा सफाई देना बहुत हुआ

सम्मान की खातिर निकला हूँ अपमान बहुत हुआ।


पर है तुझमे हिम्मत तो एक शास्त्रार्थ कर लो

जो उठी हसरत दिल मे तो आकर पूरा कर लो

हम है तो नादान पर इतनी समझ तो मुझमें है

बेतुकी जुबानी जंग नही मैदान में वार कर लो।


वय में छोटे है हम अभी पर मति इतनी तो है

कब- कहाँ -कैसे बोले ? समझ इतनी तो है।

ना लिहाज किया होता तो टीस यह ना होती

पर बोल दिया किसी ने छोड़, बात इतनी तो है।


लाख सिपाही तुम लाओ मुझे हराने को

मैं रण का यौद्धा हूँ बताता हूँ जमाने को

आजाओ इस खुले मैदान ए जंग में अब

मौका नही दूँगा अब छूपकर सताने को।


परिंदा समझा था उसने हमे, हां मैं हूँ भी वैसे

वय की इतनी सीढियां चढ़कर भी हो आप ऐसे

तूफान में वो दम है तो आशियाँ मेरा तोड़ दे

पर हम भी वो है, जो तूफानों का मुँह मोड़ दे।


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