मन
मन
मन करता है
उड़ती रहूं परिंदों की तरह।
मन करता है
मंडराती रहूं भंवरों की तरह।
पर ऐ निश्छल मन
वक्त की सुई को देख।
शाम ढलने को आई है
परिदें भी घर को लौट चले हैं।
आ तू भी अब लौट चल
रात के चकाचौंध से
सुबह के उजाले में
सपनों की सैर से
हकीकत की दुनिया में।