STORYMIRROR

Himanshu Mahla

Abstract

4  

Himanshu Mahla

Abstract

भीगी-सी साँझ

भीगी-सी साँझ

1 min
309

तेरी पुकार....!

जब पुकारते हो तुम

उमड़ पड़ती है इक नदी

अंतस में

लिए तरंगित स्वर-लहरी,

फूट पड़ते हैं झरने

कह देने को वह सब 

जो गुम्फित है 

जन्म-जन्म से।


सधते हैं सुर

सजती है रागिनी

अधर-सम्पुट चटकते हैं

चाहते हैं गुनगुनाना,

जो थमा है युगों से

मुक्त करना चाहती

बह जाने दिया चाहती

वह अथाह प्रवाह.....!!


गहकर ये मनोभाव

पत्थरों बीच बहती जलधार

थिरक-थिरक उठती,

वृक्ष संगत को लरजते

वायु छेड़ देती

बंसी-सी तान,

परिंदे चहचहा उठते,

शिशिर की कुनमुनी धूप भी

ले-ले अँगड़ाई

कनबतियाँ कर 

कह देने का हठ करती।


जूही के झुरमुट तले

पुनः साधती मन-वीणा

जाग्रत करती हृदय-राग

सौंधी-सी साँझ में

छेड़ देना चाहती इक तान

जो जीवन-दहलीज लाँघ 

बहती चली जाए

उस छोर के भी पार।


पर ज्यूँ ही तुम

समक्ष आते

अधर खुल ही न पाते,

औ'

सर्दियों की 

गमकती धूप में,

मेरे गीत भी

मंद-मंद

बहक-महक उठते

नयनों की ओट।


न जाने क्यूँ

अनायास ही

तुम मुस्कुरा उठते

बिन कुछ कहे,

जानती हूँ 

तुम ही तो हो

जो सुन पाता है

अधरों में बंद

निःशब्द मेरे गीत भी,

यही तुम्हारी बूझ

हौले से छू जाती 

मन-आँगन आर्द्र मृण।



Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract