भाभी जी सब्जी ले लो
भाभी जी सब्जी ले लो
मेरी नजर बस एक टक उसी को निहार रही थी
धूप में पसीने से लत पत वो भी मुझे ही पुकार रही थी
भाभी जी सब्जी ले लो
ताजी ताजी सब्जी ले लो
कानों को सुनाई तो उसकी आवाज दे रही थी
पर दिल को जैसे उसकी टीस सुनाई दे रही थी
सब्जी पर पानी के साथ अपने पसीने को उकेलती
वो मुझसे एक गिलास पानी मांग रही थी
उम्र ही क्या थी उसकी महज सोलह साल
पर सब्जी का हिसाब ऐसा जैसे उम्र गुजार रही थी
पड़ोसन ने आकर भाव पूछा सब्जी का
वो भी सयानी सब्जी को बड़ा महंगा बता रही थी
कुछ देर तक चली बहस दोनों में तो दिल ने कहा
क्या इस बच्ची पर उसको जरा भी दया नहीं आ रही थी
न वो मानी ना वो हारी बहस जैसे बढ़ी जा रही थी और
मुझे रूप में उसके तपते सोने सी झलक दिखी जा रही थी
सोचने लगी मैं खड़े खड़े
मैं दो घड़ी भी धूप में खड़ी नहीं रह पाई जब तक वो पानी पीये
और ये बच्ची कैसे हंस के धूप से दोस्ती करे जा रही थी
ममता की छांव तले प्यार मिलता हो जैसे
वैसे ही भूख में एक नजर उस पल पर पड़े जा रही थी
बेशक स्वाद खाने का मां के हाथों का ही है
पर मुझे उसके पसीने की महक आज सब्जी के मसालों से आ रही थी
तड़का बेशक हींग का लगाया मां ने
पर गर्मी तेल की उसके जलने की सी लगी जा रही थी
सोचा अब न भाव सब्जी का मैं करूंगी
ना मेरे सामने किसी को करने दूंगी
जो किया तो उसको धूप में दो घड़ी खड़े रखूंगी
घर बैठे मिल जाता है सब कुछ इन गरीबों से
पर इंसान की फितरत गंदे पानी ज्यों बहे जा रही थी।