बेपरवाह इश्क
बेपरवाह इश्क
जमाने के सितम से कब डरा है
नफरतों की आंधियों के बीच
चट्टान सा अडिग खड़ा है
ना जाति धर्म देखे ना ऊंच-नीच
चाहतों के आसमां की जिद पे अड़ा है
ऐसे ही तो नहीं खिलता है कभी
किसी दिल के गुलशन में इश्क का गुलाब
किसी की कातिल निगाहों का बीज
शायद मन के आंगन में जरूर पड़ा है
कहां परवाह की है इश्क ने आज तक
हुआ चाहे कितना भी भयंकर लफड़ा है
इश्क की दौलत के सामने क्या है सल्तनत
खुश है वही जिसके दिल में इश्क का खजाना गड़ा है ।
श्री हरि

