बेदवा दर्द
बेदवा दर्द
सामने न कोई मुजरिम न ही क़ातिल मेरा
कंधे पर तीर पर तीर भरे रक्खे हैं।
किसी से कुछ कहासुनी नहीं मेरी
दिल में तल्ख़ी भरी-भरी सी है।
कुछ पता नहीं सबब मेरी तल्ख़ी का मुझे
पर सुलग रहे इस लावे की कोई भीतरी नदी तो है।
ढोए हैं मैंने बेदवा वो ज़ख़्म कई सालों तक
जिनकी जलन तुम्हें नयी - नयी सी है।