एक जोड़ी नंगे पैर
एक जोड़ी नंगे पैर
एक जोड़ी फटे नंगे पैर
चटकती हुई सड़क पर
दौड़ पड़े हैं, घर की ओर
अपनी जड़ों की ओर।
एक दूसरा इंसान, उसके पीछे
भाग रहा है, लादे हुए कैमरा
वह छोड़ कर आया है
अपना घर, अपने पीछे।
एक तीसरा भी है, जरा दूर
जो रंग रहा है पन्ने पर पन्ने
और चौथा अदृश्य है,पूछिये क्यों ?
क्योंकि गांधी जी के
केवल तीन ही थे बंदर !
पर फिर मैं सोचती हूँ,
ये बेशर्मियत का घड़ा
किसपर फोडूँ ?
उस पर जिसने आकाशवाणी की थी ?
या उसपर जो खड़ा है रास्तों पर
लाठी के साथ
(अलबत्ता जो गांधी जी की नहीं है)
या उस पर,जो उसके आंसुओ को भी
भंजा रहा है !
पर फिर मुझे लगता है
हर आदमी अपनी रोटी कमा रहा है,
और असल ग़मगीन जिसे होना चाहिए
वह कैमरे के बगल से
उसी धुन में चला जा रहा है।
जिसके तलुए इतने मजबूत हैं
हो न हो उसकी छाती भी उतनी ही कठोर होगी।
फिर क्यों कोई उसके मातहत
अपना रोना बेचता है
कोई भंजाता है अपने शब्द
कोई अपना समाचार सेंकता है
जिसने सत्तर साल ढोया है यह देश
उसका भी अपना स्वाभिमान होगा,
फिर क्यों कोई उसपर अपने घड़ियाली आंसू बहाता है।
जाहिर है हर कोई अपनी रोटी कमाता है !