बचपन
बचपन
हर बचपन की एक कहानी होती है।
कोई मनमानी,कोई सयानी होती है।
कोई, अल्हड़, बेपरवाह,दिवानी होती हैं।
इस बचपन की भी थी एक कथा।
था खुश और ज़िन्दा दिल, पर थी एक व्यथा।
था सब जैसा ही,पर नहीं भी था,कुछ अलग सा था।
चाहते तो थे सब,पर हमदम,हम कदम हम यार न थे।
खुद में मस्त,खुद की परवाह।
यही बन गयी उसकी आबोहवा।
कुछ प्रेम, लाड़ और थोड़ा व्यवहार।
छोड़ा बचपन को पीछे,करा यौवन का आगाज़।
समां था थोड़ा डरा डरा,बहती, महामारी की हवा।
किलकारीयों से गुंजते थे जो मैदान,
ताले जंजीरें हैं वहां विराजमान।
शिक्षा दिक्षा अब स्क्रीन के आगे होती है मेहरबान।
जो थी बचपन की व्यथा,
बदले समय में है इस युवा की ताकत श्रीमान।
जवाब तो थे पहले भी लाजवाब,
पर लेखन में रह जाते थे अधुरे अरमान।
स्क्रीन का परदा,न साथीयों के अपशब्द,
बस थे जो गुण पहले भी उन्हीं से होने लगी थी पहचान।
बीज ही डाल सकता, है इंसान,
दे हवा पानी और प्यार का व्यवहार।
हर जीव का पनपने का समय है अपना,
ले कर आयेगा वक्त खुशबू की बहार,
लगा रह ज़िंदा दिली से क्यों माननी हार, मेरे यार।