बारिश और तुम
बारिश और तुम
मिट्टी की ये खुशबू कुछ पुरानी यादों सी लगती है आज
क्योंकि बरसात की एक रात वो भी थी,
ये भी है।
पर उस रात के अन्धेरे में इतना खौफ़ कहाँ था
उस रात चाँद की चाँदनी इतनी तनहा कहाँ थी
उस रात बारिश की बूंदों में प्यार भरा था, आज कुछ भी कहाँ
उस रात मेरी धड़कन भी तो बहकी हुई थी, आज कुछ भी कहाँ
उस रात उन राहों पर मीलों चल सकता था मैं
पर आज घर जाने की जल्दी में हूँ।
उस रात भीगने को मचल रहा था मेरा मन
आज कुछ भी मंजूर है, भीगना नहीं।
जानती हो क्यों
क्योंकि उस रात के साए में मेरे हाथों को थामें हुए तुम थी
डरता भी तो कैसे
मर तो तुमपे पहले ही चुका था
अब जान बाकी ही कहाँ थी।