बांझ
बांझ
वो ख़फ़ा रहता है आजकल मुझसे,
उसे अपनी मोहब्बत का मतलब कैसे समझाऊँ मैं,
जीने मरने के लाख वादे निभा करके भी,
आखिर क्यूँ बेवफ़ा कहलाऊँ मैं।
मेरी ममता ने कहां देखा है कभी अपना पराया,
इन रिवाज़ों में फिर कैसे बंधकर रह जाऊँ मै,
हज़ार रंग बिखेर गई, बस एक नहीं,
फिर भी क्यूँ बेरंग कहलाऊँ मैं।
ना उम्र का बंधन, ना बंधनों की परवाह,
मेरी हिम्मत तोड़ते इस बोझ को कैसे मन पर उठाऊँ मैं,
कई ज़िंदगियाँ हैं बंधी मुझसे, जो वो एक नहीं,
तो क्यूँ बेजान कहलाऊँ मैं।
वास्ता जिसका सिर्फ दिल से है,
उस जज़्बात का सबूत कैसे दिखाऊँ मैं,
जो सींचती हूँ हर रिश्ता दिल से,
फिर क्यूँ बंजर कहलाऊँ मैं।
ना कोई कमी, ना एहसास अधूरेपन का,
मगर आज हर पीर, हर दर की ठोकर खाऊं मैं,
सौ वरदानों सी, जो एक ना पा सकी,
इसलिये अब बाँझ कहलाऊँ मैं।
उस मालिक की मेर मुझ पर एक दिन जो बरसे,
एक नन्ही जान कोई मेरे हाथ भी लाकर दे,
फिर उसे एक ऐसा इंसान बनाऊँ मैं,
हर कानून, हर नियम तोड़ दे वो इस कदर,
कि फिर कभी ना बाँझ कहलाऊँ मैं।