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Akanksha Bhatnagar

Tragedy

3  

Akanksha Bhatnagar

Tragedy

"अवसाद "

"अवसाद "

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होठों पे मुस्कान है मेरे  

पर आँखें विचलित रहती हैं  

यूँ तो रहती हूँ खामोश मैं अक्सर 

पर मन में धारा बहती है। 


अब तकती हूँ दीवारों को 

दिनभर रातें अपनी करती हूँ  

घड़ी की हर एक टिक-टिक से 

अवसाद की ओर बढ़ती हूँ ।


अपने जीवित होने पर भी   

एक प्रश्नचिन्ह सा लगजाता है 

जब पूछे कोई हाल मेरा   

बस शून्य उभर अब आता है।  


बढ़ने लगे नकारात्मकता जब   

पीड़ा लहू बन बह जाती है  

थमते हैं अश्कों के सैलाब

देह जिंदा लाश बन जाती है।


जब हारा हो ये मन अगर 

तब एक सहारा होता है 

 दे झूठी आस, लगे आकर्षित मगर  

 वही अवसाद हमारा होता है।


 रोकता है हमें लड़ने से भी  

अपनी ओर ये खींच लेता है  

घेरता है अपनी बाहों में   

फिर मौत को सौंप देता है।


 मैं व्यक्त करूँ जो वेदना अपनी 

आकर्षण का केंद्र मुझे बतलाते हो 

 अलविदा कह दूँ जो ज़िन्दगी को अगर

 फिर क्यों मुझे अपना

बता दो अश्क बहाते हो।

 

देखी लटकी लाश तुमने पंखे से  

या ज़हर का प्याला देखा था  

 क्यों घुटता सुकून तुम्हें दिखा नहीं  

कितने गमों को मैंने झेला था ।


कहते हैं वो कायर मुझे 

 मेरा हारना उन्हें अखरता है

 मगर खुदको मिटा देने में 

 क्या कोई साहस नहीं लगता है ? 

 ये मौत नहीं बस एक क्षण भर की  

सालों तक इसमें उलझते हैं। 


जीत भी जायें किसी गैर से हम

यहाँ तो खुदसे बैर रखते हैं।

मौत पे ये दुनिया वाले  

जाने क्यों इतना विलाप करते हैं।  


अवसाद भरे जीवन में लोग  

तिल तिलकर मौत से पहले मरते हैं

 है उज्याला अधिक दूर नहीं  

कमी है बस कुछ अपनों की। 


 दे जाए कोई एक कांधा अगर  

 नहीं जरुरत चार कंधो की।


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