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Akanksha Bhatnagar

Tragedy

3  

Akanksha Bhatnagar

Tragedy

अवसाद

अवसाद

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381

होठों पे मुस्कान है मेरे  

पर आँखें विचलित रहती हैं  

यूँ तो रहती हूँ खामोश मैं

अक्सर 

पर मन में धारा बहती है 

अब तकती हूँ दीवारों को 

दिन भर रातें अपनी करती हूँ  

घड़ी की हर एक टिक-टिक से 

अवसाद की ओर बढ़ती हूँ।


अपने जीवित होने पर भी   

एक प्रश्नचिंह सा लग जाता है 

जब पूछे कोई हाल मेरा   

बस शून्य उभर अब आता है  

बढ़ने लगे नकारात्मकता जब   

पीड़ा लहू बन बह जाती है  

थमते हैं अश्कों के सैलाब

देह जिंदा लाश बन जाती है।


जब हारा हो ये मन अगर  

तब एक सहारा होता है 

दे झूठी आस, लगे आकर्षित

मगर  

वही अवसाद हमारा होता है

रोकता है हमें लड़ने से भी  

अपनी ओर ये खींच लेता है  

घेरता है अपनी बाहों में   

फिर मौत को सौंप देता है।


 मैं व्यक्त करूँ जो वेदना अपनी 

आकर्षण का केंद्र मुझे बतलाते हो 

अलविदा कह दूँ जो ज़िन्दगी

को अगर

फिर क्यों मुझे अपना बता दो

अश्क बहाते हो 

देखी लटकी लाश तुमने पंखे से  

या ज़हर का प्याला देखा था  

क्यों घुटता सुकून तुम्हें दिखा नहीं  

कितने गमों को मैंने झेला था। 


कहते हैं वो कायर मुझे 

मेरा हारना उन्हें अखरता है

मगर खुद को मिटा देने में 

क्या कोई साहस नहीं लगता है? 

ये मौत नहीं बस एक क्षण भर की  

सालों तक इसमें उलझते हैं  

जीत भी जायें किसी गैर से हम

यहाँ तो खुद से बैर रखते हैं।


मौत पे ये दुनिया वाले  

जाने क्यों इतना विलाप करते हैं  

अवसाद भरे जीवन में लोग  

तिल तिल कर मौत से पहले

मरते हैं

है उज्याला अधिक दूर नहीं  

कमी है बस कुछ अपनों की 

दे जाए कोई एक काँधा अगर  

नहीं जरुरत चार कंधो की।


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