और मैं
और मैं
आँख मे अंजन दांत में मंजन
नित कर नित कर नित कर
नाक में उंगली कान मे लकड़ी
मत कर मत कर मत कर"।
कितनी सरलता से हँस हँस कर
जीवन का पाठ पढ़ाती थी वो
दूसरों के हस्त संचालन से नाचती
काठ की कठपुतली थी वो।
जिज्ञासा का विषय था बालमन में
कैसे डोर से बंधी ये नाचती होगी
पर्दे के पीछे कमाल था सूत्रधार का
जो उंगलियों से उन्हें नचाता होगा।
जिज्ञासा अब शांत हो रही
अब डोर मेरी कितने अदृश्य हाथों में
काठ की तो मैँ नहीं भावनाएं है
कुछ सपने कुछ आकांक्षाए है।
निपुणता से संचालन करते हैं लोग
परिवार धर्म मर्यादा रिश्तों के नाम पर
कितनी बखूबी से नचाते है लोग।
काठ की कठपुतली थी वो
दूसरों के इशारे पर नाचती थी वो।
और मैं...